जंजाळ

 “जंजाल”

शायं….. शायं…… दो सितारो का भारी भरकम भार लिए धधकती हूयी गाड़ी रुकती है। सफ़ेद बेल्टधारी युवक सीना ताने गाड़ी के दरवाज़े को खोलकर, 4  फ़ितीयों का भार लिए साहब के सामने हाथ उठाके, देश का जयकारा लगाता है। साहब सिर्फ़ मुंडी हिला कर प्रतिकार करते है। 

साहब- कुछ पता चला? इसके बारे में। यह क्यूँ पंखे से लटकर…….

सब मौन थे, इस समय ज़िंदा था तो सिर्फ़ फंदा, जो परिचित से व्यक्ति का भार लिए हुए सबको मौन किए हुए था।

सावन का मोसम पर्वतों को जान दे रहा था। बरसात का पानी,सड़कों की गर्मी को धुआ बना कर हवा में उछाल रहा है। साहिल  आज दोपहर की शिफ़्ट के लिए जा रहा है। अपने भविष्य को बेहतर बनाने की चाह आज उसको और उसके मन को बार बार याद कर रही है। “वह आज से अपने गोल पर फ़ोकस करेगा” और “तुम यह कर सकते हो” के नारे आज उसके भीतर गूंज रहे है और प्रायः यही नारे गूंजते ही रहते है । वह चाहता है कि वो इस “जंजाल” से बाहर निकले, पर कोई और बेहतर उपाय नही है सिवाय “इसके बारे में न सोचने के” ।

सीढ़ी पर तीसरा कदम ही रखा था कि उसके कान में कुछ स्वर सुनायी पड़े “दिस सटेरस ओन्ली यूज़ फ़ोर ऑफ़िसर” । साहिल ने उपर देखा तो, 2  लकीरें  का भार  कंधो पर लटकाए, साहब खड़े है । साहिल का हाथ बिना उसकी अनुमति के माथे से जा टकराया, उसके मुँह ने जयकारे को आवेग प्रदान किया…… सामने से भी न्यूटन का तीसरा नियम काम कर गया। साहिल गर्दन झुकाए सुनता रहा और लोट आया।


“अंग्रेज चले गये पर उसका अंश आज भी क्यूँ है? ” वह मन ही मन मनन करता रहा । 

वह हर रोज़ खुद को कोसता रहा । 

………..

आज भी दोपहर की शिफ़्ट है ,उसकी । रोज़मर्रा का कार्यक्रम ख़त्म कर, बाइक लेके अपने काम पर जा रहा है। आज वह बहुत खुश भी है——- “मेरी जॉब लग गयी” के स्वर उसके मन को विरक्त किए हुए थी। उसे याद भी नही रहा कि उसने कब उस काली सी गाड़ी को क्रोस कर गया जो अभी उसके आगे आके उसको रोके रखी है। 

साहब उतरे, न्यूटन के नियम का यहाँ भी प्रयोग हुआ और नियमानुसार जयकारा तो पीठासीन तक पहुँच ही चुका था। 

साहब- “नॉन्सेन्स, वट इज़ यॉर नेम?”

साहिल- “सर, ——साहिल” कार्यस्थल के नाम को भी अपने नाम के पिछे चिपका देने में सफल हुआ परंतु,

सॉरी सर बोलना भूल गया।

“टूमोरों,रिपोर्ट टू माई ऑफ़िस” साहब बोल कर फिर से गाड़ी में बेठ गये ।

“क्या गाड़ी भी क्रॉस……??” साहिल अपने से जवाब माँग रहा था

“नही, नही, रूल है…यही रूल है” उसके “वह” ने अंदर से आवज लगायी।

“अंग्रेज चले गये पर उनका वंश यही……” वह सोचता रहा

“वंश नही ,,, अंश,,,,” 

उसका “वह” हंस-हंस कर साहिल को धिकार रहा था।

कुछ एसी ही घटनाएँ उसके लिए नयी नही थी,,, हज़ारो बार सिनीयरो के मुँह से सुन चुका था वह,,, परंतु ,,,खुद को नियति के हवाले कर सकने में विफल ही रहता था।

उसके अपने थे तो सिर्फ़ वे जो उसके ज़ेसे थे…. बाक़ी उसके अपनो को पराया तभी से महसूस कर रहा है जब से वह “जंजाल” में फँसा है।

दिनो दिन ,उसका मन विचलित रहने लगा…. कभी ख़ास रिश्तों को लेकर… तो कभी इस “जंजाल” को लेकर….उसकी सिकायते सुनते थे सिर्फ़ दो लोग “वह” और वह के बाहर का साहिल।

काली गाड़ी वाले साहब ने बिना दया दिखाए ,,, लाल स्याही फेर ही दी…..पता नही पन्नो पर या किसी घर की आशा पर ।

कुछ दिनो तक कोर्ट के चक्र की परिधियाँ नापता रहा साहिल मगर साहब की वो लाल स्याही का असर बहुत होता है…..असर इतना की अब उसको अगले महीने ही घर जाना ही पड़ेगा…. बिना उस काग़ज़ के जो उसके ह्रदय से हर रोज़ उसे लगाना ही पड़ता है।

रात काला रंग ओढ़ कर शाम को धिक़कार रही थी। रात में भी सब जाग रहे है शिवाय साहिल के पर उसका “वह” तो……..अजीब सी दुनिया में चला गया है…….क्यूँकि “वह” तो “वह” है। “वह”परिवर्तनशील है, अन्नत है, नश्वर है, ……………

टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
👍
Unknown ने कहा…
सुंदर 💐❤️

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

" बचपन के खेल" कविता

जो बीत गया सो बीत गया

शिक्षक दिवस