कितना स्वार्थी है मानव

कितना स्वार्थी है मानव...

नदी से पानी नहीं  

रेत चाहिए....

पहाड़ से औषधि नहीं

पत्थर चाहिए....

पेड़ से छाया नहीं

लकड़ी चाहिए......

खेत से अन्न नहीं

नकदी फसल चाहिए


उलीच ली रेत

खोद लिए सब पत्थर

काट लिए पेड़

तोड़ दी मेड़


कितना लालची है मानव..

रेत से पक्की सड़क 

पत्थर से मकान बनाकर 

लकड़ी के नक्काशीदार दरवाजे सजाकर,


अब भटक रहा हैं मानव.....!!


सूखे कुओं में झाँकते,

रीती नदियाँ ताकते,

झाड़ियां खोजते लू के थपेड़ों में,

बिना छाया के ही हो जाती सुबह से शाम....!!!

और गली-गली ढूंढ़ रहे हैं आक्सीजन

और भटक रहे छांव की खोज मे..


तपती दुपहरी

बदबूदार हवा

उजड़ती प्रकृति

ओर सब बर्तन खाली

सोने के अंडे के लालच में,

मानव ने मुर्गी मार डाली !!!,


कितना लालची है मानव.....

टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
🍀
Subhash nath ने कहा…
एक शानदार लयबंद कविता है ।
मुक्तक 🍀 का अच्छा प्रयोग हुआ है ।

समकालीन समाज के स्वार्थी मनुष्य का खाका खिंचा गया है जो वर्तमान में प्रामाणिक और समाज की छवि को सुधारने का माप है।
केंद्रिय संवेदना - अहलोकवाद से भोतिक वस्तुओं का उपभोग करने वालो को चेताया है।
बेनामी ने कहा…
Mast

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