गरीबी और बचपन

 मेरे बचपन की राहों में 

बचपन गुजर रहा है केवल 

ख्वाबों और निगाहों में 

मेरे साथी खड़े हैं खेल के मैदानों में 

मैं देखता हूं केवल उनको 

कितने खुशनसीब हैं वे सब लोग 

बीच मैदानों में भागते,दौड़ते,खिलखिलाते हैं 

परंतु कभी-कभी सोचता हूं 

कितने स्वार्थी हैं वे सब लोग 

न कभी बुलाते न कभी खिलाते 

और ना ही कभी बचपन में साथ निभाते 

मैं गरीब हूं तो क्या हुआ 

मेरा भी तो मन चाहता है 

मैं खेलूं मैं कुदू मैं खिलखिलाऊ

पर यह गरीबी है निगोड़ी 

मेरा सब कुछ छीन लिया 

न खेलने देती,न हंसने देती,

न जिंदगी में खुशियां देती

(एक गरीब बच्चे के जीवन पर समर्पित कविता)

 लेखक: शंकर नाथ 

टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
अति उत्तम
👍👍🙏🙏
मदन नाथ ने कहा…
मनमोहक कविता बचपन का तो खेल ही निराला था
बेनामी ने कहा…
बहुत ही सुंदर कविता

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