मानवता का विनाश

मोबाइल की दुनिया में उलझा है मानव,

भूल गया संबंधों का प्यारा संगम।
पलकों में स्क्रीन, दिल में है शोर,
चुपचाप जी रहा, पर भीतर है तोड़।

न सोशल है अब सोशल मीडिया,
बस दिखावा, जलन और पीड़ा।
हर क्षण क्लिक, हर भाव ऑनलाइन,
पर मन के रिश्ते हो गए ऑफलाइन।

टीवी, गेम्स, रील्स का जाल,
बचपन से छीन लेता खुशहाल।
नेत्र थके, मन भी भ्रमित है,
सपनों का संसार भी सीमित है।

पढ़ने की आदत हो गई बेमानी,
ज्ञान अब खोजता एक झलक पानी।
मस्तिष्क थक गया दिखावे की रट से,
भूल गए सच्चाई, खो गए हक से।

कला थी जो, अब उपकरण बनी,
मनोरंजन की जगह व्यसन बनी।
मल्टीमीडिया की इस तेज़ रफ़्तार में,
मानवता खो रही अपने आधार में।

संकेत है ये समय का, जागो अब मानव,
तकनीक को साधन बनाओ, न बनाओ दानव।

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